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<poem>लू के थपेड़े हाड़ कंपाते जाड़े
भरी बरसात में
जंगल-पहाड़ नदी-नाले को
लांघकर
स्कूल जाती हैं
दूर-दराज बियाबान में बसे
गांव-देहात की बेटियां

न तन ढंकने लायक कपड़े
न पैरों में ढंग की चप्पल
पौ फटते दो कौर बासी भात पेट में डाल
घर गृहस्थी छोटे भाई-बहन
मां-बाप के सौ टंटे बोरे
बदरंग तख्ती के संग
ब्लैकबोर्ड पर उभरते ककहरे से जोड़
नाता
अंधेरे में उम्मीद की कंदील
जलाती हैं!</poem>
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