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दखल / नीरा परमार

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<poem>कोई उस औरत को बतलाए
आखिर क्यों दे रही है वह किसी को
अपनी ज़िन्दगी से जुड़े सवालों के जवाब?
आखिर कब बंद होगी
दीवार में ठुंकती कील-सी
प्रश्नों की ठक-ठक

क्यों आंखें खुलते ही कोई भी
सुबह
बेमानी जिरह करने को सिर पर हो जाए सवार
चढ़ते हुए
किराए-सी मोहलत में मिली
बंद खिड़कियों से सर फोड़ती सांसें
ऊपरवाले से मांगा उधारी तन
रेहन रखे सपने
क्यों हो पूछताछ अपने मन की
मनमानी की?

हां है...
अपने पंख अपनी उड़ान अपना आकाश
तो फिर...?

बचे-खुचे पल यदि बन जाएं कैन्वस
इच्छाएं
असहमतियों अस्वीकारों वर्जनाओं के लबादे उतार
सपनों के समुद्र में लगा दें छलांग
मुट्ठी में बंद रंगों का किसी की क्यों दे हिसाब
वह औरत?</poem>
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