लेखक: [[श्यामनन्दन किशोर]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=श्यामनन्दन किशोर]]}}{{KKCatKavita}}<poem>चमड़ी मिली खुदा के घर सेदमड़ी नहीं समाज दे सकागजभर भी न वसन ढँकने कोनिर्दय उभरी लाज दे सका
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~मुखड़ा सटक गया घुटनों मेंअटक कंठ में प्राण रह गयेसिकुड़ गया तन जैसे मन मेंसिकुड़े सब अरमान रह गये
चमड़ी मिली खुदा के घर से<br>दमड़ी नहीं समाज दे सका<br>गजभर भी आग लेकिन न वसन ढँकने भाग्य-साजलने को<br>जुट पाया इंधनदाँतों के मिस प्रकट हो गयानिर्दय उभरी लाज दे सका<br><br>मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन
मुखड़ा सटक किन्तु अचानक लगा कि यह,संसार बड़ा दिलदार हो गया घुटनों में<br>अटक कंठ में प्राण रह गये<br>जीने पर दुत्कार मिली थीसिकुड़ मरने पर उपकार हो गया तन जैसे मन में<br>सिकुड़े सब अरमान रह गये<br><br>
मिली आग लेकिन न भाग्यश्वेत माँग-सा<br>सी विधवा की,जलने को जुट पाया इंधन<br>दाँतों के मिस प्रकट हो चदरी कोई इन्सान दे गया<br>मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन<br><br>और दूसरा बिन माँगे हीढेर लकड़ियाँ दान दे गया
किन्तु अचानक लगा कि यहवस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,<br>संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>धन्य हुआ मानव का चोलाजीने पर दुत्कार मिली थी<br>मरने पर उपकार हो गया<br><br>कफन फाड़कर मुर्दा बोला।
श्वेत माँग-सी विधवा कीकहते मरे रहीम न लेकिन,<br>चदरी कोई इन्सान दे गया<br>पेट-पीठ मिल एक हो सकेऔर दूसरा बिन माँगे ही<br>नहीं अश्रु से आज तलक हम,ढेर लकड़ियाँ दान दे गया<br><br>अमिट क्षुधा का दाग धो सके
वस्त्र मिल गयाखाने को कुछ मिला नहीं सो, ठंड मिट गयी,<br>धन्य हुआ मानव का चोला<br>खाने को ग़म मिले हज़ारोंश्री-सम्पन्न नगर ग्रामों मेंकफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>भूखे-बेदम मिले हज़ारों
कहते मरे रहीम न लेकिन,<br>पेटदाने-पीठ मिल एक हो सके<br>दाने पर पाने वालेनहीं अश्रु से आज तलक हमका सुनता नाम लिखा हैकिन्तु देखता हूँ इन पर,<br>अमिट क्षुधा का दाग धो सके<br><br>ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है
खाने को कुछ मिला नहीं सोदास मलूका से पूछो क्या,<br>खाने को ग़म मिले हज़ारों<br>'सबके दाता राम' लिखा है?श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में<br>या कि गरीबों की खातिर,भूखे-बेदम मिले हज़ारों<br><br>भूखों मरना अंजाम लिखा है?
दाने-दाने पर पाने वाले<br>किन्तु अचानक लगा कि यह,का सुनता नाम लिखा है<br>संसार बड़ा दिलदार हो गयाकिन्तु देखता हूँ इन जीने पर,<br>दुत्कार मिली थीऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है<br><br>मरने पर उपकार हो गया।
दास मलूका से पूछो क्याजुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,<br>'सबके दाता राम' लिखा है?<br>भोज मनाने बन्धु चल पड़ेया कि गरीबों की खातिरजहाँ न कल थी बूँद दीखती,<br>भूखों मरना अंजाम लिखा है?<br><br>वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े
किन्तु अचानक लगा कि यहनिर्धन के घर हाथ सुखाते,<br>संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>नहीं किसी का अन्तर डोलाजीने पर दुत्कार मिली थी<br>मरने पर उपकार हो गया ।<br><br>कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।
जुटाघरवालों से, आस-जुटा कर रेजगारियाँपास से,<br>भोज मनाने बन्धु चल पड़े<br>मैंने केवल दो कण माँगाजहाँ न कल थी बूँद दीखती,<br>किन्तु मिला कुछ नहीं औरवहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े<br><br>मैं बे-पानी ही मरा अभागा
निर्धन जीते-जी तो नल के घर हाथ सुखातेजल से,<br>नहीं भी अभिषेक किया न किसी का अन्तर डोला<br>नेकफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>रहा अपेक्षित, सदा निरादृतकुछ भी ध्यान दिया न किसी ने
घरवालों सेबाप तरसता रहा कि बेटा, आस-पास श्रद्धा से,<br>मैंने केवल दो कण माँगा<br>घूँट पिला देकिन्तु मिला कुछ नहीं और<br>स्नेह-लता जो सूख रही हैमैं बे-पानी ही मरा अभागा<br><br>ज़रा प्यार से उसे जिला दे
जीते-जी तो नल कहाँ श्रवण? युग के जल सेदशरथ ने,<br>भी अभिषेक किया न किसी ने<br>एक-एक को मार गिरायामन-मृग भोला रहा अपेक्षितभटकता, सदा निरादृत<br>निकली सब कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने<br><br>लू की माया
बाप तरसता रहा किन्तु अचानक लगा कि बेटायह,<br>श्रद्धा से दो घूँट पिला दे<br>स्नेहघर-लता जो सूख रही है<br>बार बड़ा दिलदार हो गयाजीने पर दुत्कार मिली थी,ज़रा प्यार से उसे जिला दे<br><br>मरने पर उपकार हो गया
कहाँ श्रवण? युग के दशरथ नेआश्चर्य वे बेटे देते,<br>एकपूर्व-एक पुरूष को मार गिराया<br>नियमित तर्पणमननमक-मृग भोला रहा भटकतातेल रोटी क्या देना,<br>निकली सब कुछ लू की माया<br><br>कर न सके जो आत्म-समर्पण!
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>घर-बार बड़ा दिलदार हो गया<br>जीने पर दुत्कार मिली थी,<br>मरने पर उपकार हो गया<br><br> आश्चर्य वे बेटे देते,<br>पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण<br>नमक-तेल रोटी क्या देना,<br>कर न सके जो आत्म-समर्पण !<br><br> जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,<br>और स्वर्ग के द्वार न खोला !<br>कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br>बोला।<br/poem>