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जीवन के रेतीले तट पर मैं आंधी तूफ़ान लिए हूँहूँ।
अंतर में गुमनाम पीर है,
कौन सुने, जग निष्ठुर प्रहरी
पी-पीकर भी आग अपरिमित मैं अपनी मुस्कान लिए हूँहूँ।
आज और कल करते-करते
तब तक सभी फूल मुरझाए
तेरी पूजा की थाली में, मैं जलते अरमान लिए हूँहूँ।
चलते-चलते सांझ हो गई
लखन-रेख अपनी मजबूरी
बिछुडन के सरगम पर झंकृत, अम्र मिल्न अमर मिलन के गान लिए हूँहूँ।
पग-पग पर पत्थर औ' काँटे
क्षण-क्षण इस जग की बाधाएँ
तुहिन-तुषारी प्रलय काल में, संसृति का सोपान लिए हूँहूँ।
</poem>
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