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किस लोक में / नीलेश रघुवंशी

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<poem>खड़ी हैं गर्भस्थ शिशुओं के संग नदी की धार पर माएं
कैलेंडर में छूट गए खानों जैसे-तीलियों से भरी माचिस हैं बच्चो
डरती-छिपतीं घरेलू इलाज करतीं
अदृश्य नाव पर सवार।
लेती हैं दाखिला अस्पतालों में
जनम देना ही होगा
कोई चारा नहीं अब
हाय-हाय करतीं माएं...सूंघ जाते हैं सांप
गर्भ से निकलते ही मां के
आते हैं शिशु मुनाफे और कालाबाज़ारी सने हाथों
ब्याह से पहले बच्चा...डंक मारता समाज
क्या करें कुंवरी माएं
कहां-किस लोक में जाएं संग बच्चों के
किस ट्रेन पर हो जाएं सवार
देती हो जो परी झंडी
रेलवे जंक्शन पर खड़ी हैं माएं
अनगिनत डिब्बों पटरियों के साथ
जीवन-भर करेंगे बच्चे सफर/बिना सीट बिना आरक्षण
चुक गई माएं/स्मृतियों में लगायेंगी ताला
जिसकी चाबी छूट गए बच्चों के पास होगी!
</poem>
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