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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
जब से अपनाई है फितरत उस कली ने ख़ार की
ख़ार सी लगने लगी है हर कली गुलज़ार की
आ गए वो दाद देने हसरत-ए-दीदार की
ख़त्म होने को थी जिस दम ज़िन्दगी बीमार की
चांद, गुल, क़ौस-ए-कुज़ह सब को ख़फ़ा हम ने किया
नामुकम्मल ही रही तारीफ़ उस रूख़्सार की
तोड़ दे तन्हाइयों की आहनी दीवार को
ख़ामुशी खा जाएगी वरना इसी दीवार की
मौसम-ए-बारिश में घर से कम निकलते हैं सभी
इन दिनों में सूख जाती है नदी दीदार की
यास के साए में है “ज़ाहिद” उमीदों का चमन
ज़िन्दगी अब मुस्कराहट है किसी बीमार की
{{KKMeaning}}
</poem>
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|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
जब से अपनाई है फितरत उस कली ने ख़ार की
ख़ार सी लगने लगी है हर कली गुलज़ार की
आ गए वो दाद देने हसरत-ए-दीदार की
ख़त्म होने को थी जिस दम ज़िन्दगी बीमार की
चांद, गुल, क़ौस-ए-कुज़ह सब को ख़फ़ा हम ने किया
नामुकम्मल ही रही तारीफ़ उस रूख़्सार की
तोड़ दे तन्हाइयों की आहनी दीवार को
ख़ामुशी खा जाएगी वरना इसी दीवार की
मौसम-ए-बारिश में घर से कम निकलते हैं सभी
इन दिनों में सूख जाती है नदी दीदार की
यास के साए में है “ज़ाहिद” उमीदों का चमन
ज़िन्दगी अब मुस्कराहट है किसी बीमार की
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