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<poem>ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके

मिरी तबाही ए दिल पर तो रहम खा न सके
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके

न जाने आह कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिज़ा तक आ न सके

रह-ए-ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ाए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं नया आसमाँ बना न सके</poem>
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