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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।
अब दिन बदलेधरती की जलती साँसों नेमेरी साँसों में ताप भरा, घड़ियाँ बदलीं,<br>साजन आ‌एसरसी की छाती दरकी तोकर घाव ग‌ई मुझपर गहरा, सावन आया ।<br>
है नियति-प्रकृति की ऋतु‌ओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने<br>मेरी साँसों तुफान उठा जब अंबर में ताप भराअंतर किसने झकझोर दिया,<br>सरसी की छाती दरकी तो<br>मन के सौ बंद कपाटों कोकर घाव ग‌ई मुझपर गहराक्षण भर के अंदर खोल दिया,<br>
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लि‌ए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं ला‌ई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।
है नियति-प्रकृति की ऋतु‌ओं में<br>घन के आँगन से बिजली नेसंबंध कहीं कुछ अनजानाजब नयनों से संकेत किया,<br>अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,<br>मेरी बे-होश-हवास पड़ीसाजन आ‌एआशा ने फिर से चेत किया, सावन आया ।<br>
मुरझाती लतिका पर को‌ई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।
तुफान उठा रोमांच हु‌आ जब अंबर में<br>अवनी काअंतर किसने झकझोर दियारोमांचित मेरे अंग हु‌ए,<br>मन के सौ बंद कपाटों को<br>जैसे जादू की लकड़ी सेक्षण भर के अंदर खोल दियाको‌ई दोनों को संग छु‌ए,<br>
 झोंका जब आया मधुवन में<br>प्रिय का संदेश लि‌ए आया-<br>ऐसी निकली ही धूप नहीं<br>जो साथ नहीं ला‌ई छाया ।<br>अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,<br>साजन आ‌ए, सावन आया ।<br>  घन के आँगन से बिजली ने<br>जब नयनों से संकेत किया,<br>मेरी बे-होश-हवास पड़ी<br>आशा ने फिर से चेत किया,<br>  मुरझाती लतिका पर को‌ई<br>जैसे पानी के छींटे दे,<br>ओ' फिर जीवन की साँसे ले<br>उसकी म्रियमाण-जली काया ।<br>अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,<br>साजन आ‌ए, सावन आया ।<br>  रोमांच हु‌आ जब अवनी का<br>रोमांचित मेरे अंग हु‌ए,<br>जैसे जादू की लकड़ी से<br>को‌ई दोनों को संग छु‌ए,<br>  सिंचित-सा कंठ पपीहे का<br>कोयल की बोली भीगी-सी,<br>रस-डूबा, स्वर में उतराया<br>यह गीत नया मैंने गाया ।<br>अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,<br>साजन आ‌ए, सावन आया ।आया।</poem>
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