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{{KKRachna
|रचनाकार=संजय पुरोहित
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}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>रिस्ता भी हुवै
फ़गत कागदी
ऊजळै गाभा में
हारता जूण री चाल
बगत री थापां सूं
काळ रै धमीड़ां सूं
हुय जावै बदरंग
अंतस में छापै
अनै लागै दरकण
कागद अर रिस्‍ता
एक टिल्लो फगत
बाढ देवै अर कर देवै मून
कीं नीं रैवै लारै
पड़्या रैवै दोन्यूं
ऊंचै अटाळै में
बगत रै अटाळै
जठै दोन्यां रो
कीं नीं हुवै
अरथ अर मनोरथ।
</poem>
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