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उपसंहार के साथ / रश्मि प्रभा

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<poem>मन की लहरों को नहीं लिख पाई
जो लिख पाई
वो किनारे के पानी थे
या भीगी रेत के एहसास… !
वो जो मन गर्जना करता है
उद्वेग के साथ किनारे पर आकर
कुछ कहना चाहता है
वह मध्य में ही विलीन हो जाता है
....
यूँ कई बार रात के तीसरे पहर में
कितनी बार उठकर बैठी हूँ
लिख लूँ हर ऊँची नीची लहरों की
वेदना-संवेदना
पर कहीं तो कोई व्यवधान है !
शायद सत्य की सुनामी विनाश बन जाए
इसलिए रख देता है खुदा कलम हाथों से लेकर
कहता है माथे पर हाथ रखकर
- "मैं सुनता हूँ, पढता हूँ
समझता हूँ
लहरों के उठने गिरने के मायने
न लिखे जाएँ - तो बेहतर है "
सोचने लगती हूँ,
एक ही लहर के अंदर
जो भरपूर एहसास होता है
उसे शब्द शब्द अलग करना आसान नहीं
मायने भी नहीं !
यूँ भी
जो तलवार उठ जाते हैं
वे सिर्फ समापन लिखते हैं
तो आखिर समापन क्यूँ ?
छोड़ देती हूँ रेतकणों पर
लहरों से भीगे कुछ निशान
जिसके भीतर उन लहरों सी नमी होगी
वे रेतकणों को पढ़ ही लेंगे !!!
फिर कुछ देर मुट्ठी में भरकर
हवाओं के हवाले कर देंगे
अपनी अभिव्यक्तियों को उपसंहार के साथ… </poem>
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