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Kavita Kosh से
|रचनाकार=रंजना जायसवाल
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|संग्रह=जब मैं स्त्री हूँ / रंजना जायसवाल
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ब्याह के आईं तो आयी तब लाल गुलाब थींजल्द ही पीला कनेर हो गयीं गयी चाचीघर भर को पसंद पसन्द था
उनके हाथ का सुस्वाद भोजन
झीनी साड़ी पहनतीं
चाचा के खर्राटे
बेचैनी से बरामदे में टहलतीं
जाने किस आग में जलतीं जलती थीं चाचीचाची।चाचा जब गए गये विदेश
एक हरा आदमी उनसे मिलने आया
उस दिन से चाची हरी होती गयीं
दोनों सुग्गा-सुग्गी बन गएगयेपर जिस दिन लौटे चाचानीली नजर आईं नज़र आयीं चाचीसोचती सोची हूँ _काशकाश, मैं दे सकती पंखखोल सकती खिड़की-दरवाजेउड़ा सकती सुग्गी को सुग्गे के पासपास।
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