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अप-डाऊनर्स / राग तेलंग

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<poem>वे जब रेल गाड़ियों की मुंबई की दिषा में कूच करते हैं और
जब वापस दिल्ली की ओर रूख़ करते हैं उनका नाम अप-डाऊनर्स हुआ जाता है

उन्हें कंठस्थ रहते हैं विविध गाड़ियों के नाम
उनकी समय-सारिणी और प्रकृति भी

यहां तक कि बैठने की जगह की संभावनाओं को समय से पहले ताड़ लेने का हुनर भी

एक-दूसरे के लिए जगह बनाते हुए वे काटा करते हैं सफर

अमूमन बड़े मददगार होते हैं रेल वालों से कुछ ज्यादा ही
अपने-अपने बैगों में सहानुभूति की पोटली बांधे निकलते हैं वे रोज़ घर से

वे पॉपकॉर्न वालों, चाय वालों, मूंगफली वालों को नाम से पुकारते हैं तो उसमें
हैरान होने जैसा कुछ नहीं

वे सालों से अप-डाऊन कर रहे हैं
वे समय की लंबाई और उसकी क्षण-भंगुरता पर
भले ही व्याख्यान न दे पाएं पर वे यह सब समझते हैं

उनके दुःख-सुख की बातें रेल के डिब्बों की लौह दीवारों के भीतर
एक ही शक्ल लिए होती है

वे एक अंतहीन सफर में हैं
रात के बाद दिन,दिन के बाद रात
काम के घंटों के बराबर सफर के घंटे

वे मुंबई की ओर निकल पड़े हैं चढ़ते सूरज के साथ ही
वे लौटेंगे दिल्ली की तरफ डूबते सूर्य को बगल में दबाए

उन्होंने रोज़ की तरह आज भी काटा है रास्ता
मूंगफली के बहाने या सिर्फ पानी के साथ

देर शाम को बच्चों को देखकर
उनके चेहरे
खिल उठेंगे कुछ।
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