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पायताने बैठ कर ४ / शैलजा पाठक

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<poem>शरीर पर अपना होना लिखती रात
धीरे से कंधों से होती
बेआवाज़ लुढ़क गई
हमने दूरियों के कोरे पन्नों पर लिखी
शक शुबहा दुश्मनी ईर्ष्या के
कुछ ऐसे मन्त्र
जिसे एक बार फूंक दिया जाए
तो हरे पेड़ से सारी कोमल पत्तियां झड़ जाएं
सूखे पत्तों के ढेर में लगी आग
सुलगती है देर तक
जलती है मिनटों में
बुझती है हमारी ही
हथेलियों की टेढ़ी रेखाओं के बीच
जहां दर्ज नहीं था ये रिश्ता
अच्छा ही हुआ...सब ख़त्म
हमारे मन की पवित्र नदी में
मेरी आस्था के दीये से जलते हो तुम
ये तुमने कभी नहीं जाना
और मैंने माना ही नहीं अब तक कि
एक झूठ को सच कैसे मान गये तुम।
</poem>
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