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कमाल की औरतें ११ / शैलजा पाठक

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<poem>आखिर कहां हेरा गई थी बुआ की नींद
€यों सूख गई थी आलते की शीशी
बिंदी के बारह रंग के पत्ते पर
€यों ना लगा था कोई भी रंग उनके माथे
लाल-नीले-पीले रंग की भरी साडिय़ों से
€यों न बुआ लहकी-दहकी रही
पेटीकोट पर लम्बा कुरता और दुŒपटा पहनी बुआ
गांव के उत्तर पट्टी रास्ते पर घूमती रही पगलाई सी
बटोरती रही जामुन
पेड़ से टिकी रहती ƒघंटों
डोली देखते ही कांप जाती
पिछलका रास्ता पर भाग कर देख आती कनिया का मुंह
भरी मांग और डिजाइन की चूड़ी पर फेरती
रहस्य सी नजर
सत्ती चौरा पर पटकती माथा
बिलगाए धान को अंगूठे से दबाती बाबा के खेत में
पौधा पानी में तैर तैर जाता
बुआ हीक भर रोती
अपने ही बाबा के आंगन में बेगानी बुआ का
मरद एक रात बैलगाड़ी लेकर विदा करने आया
बुआ चार बोरी धान गेहूं कोहड़ा के साथ चढ़ा दी गई
प‹द्रह साल की बुआ ने
पचपन साल के दूल्हे का ƒघर बसाया
बस्ते की रेशमी कढाई में बिंधी मिली मछली की आंख
बुआ बिखर-बिखर गई...।</poem>
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