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कमाल की औरतें १४ / शैलजा पाठक

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<poem>पहली बार मन रोया था
जब अपने प्राइमरी स्कूल को
अलविदा कहा
पिछले डेस्क पर छूट गया
पुराना बस्ता
गुम हो गया वो अंडे के आकार वाला
स्टील का टिफिन
जिसमें अम्मा ठूंस के रखा करती थी पूरी अचार
तमाम रंग-बिरंगी पेंसिलों का खोना पाना
महकने वाले रबर में सबकी हिस्सेदारी

उस आखिरी दिन डैनी सर ने
मेरे गाल को थपथपा के चूम लिया
वापस दिए मेरे ƒघूंघरू ये कह कर
कि डांस सीखती रहना
अतीत के दरवाजे पर टंगा है घूंघरू
जब भी यादें अन्दर आती हैं
सब छमछम सा हो जाता है

बड़े और समझदार होने के क्रम में
हम लगातार बिछड़ते रहे
स्कूल कॉलेज दोस्त
फिर वो आंगन भाई का साथ
पिता की विराट छाती से चिपक कर
वो सबसे दुलारे पल
और आखिर में हमेशा के लिए
बिछड़ गई अम्मा
बेगाना हो गया शहर
राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन
डूबती गंगा...शीतला माता के
माथे का बड़ा टिका सारे ƒघाट मुहल्ला
विश्वनाथ मंदिर का गुम्बद सब बिछड़ गया

अब रचती हूं यादों की महकती मेहंदी अपने हाथों में
चूमती हूं अपना शहर
...और बनारस हो जाती हूं।</poem>
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