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कमाल की औरतें १५ / शैलजा पाठक

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<poem>मिट्टी मिलते ही
लड़की आटा गूंथ देती
एक चूल्हा, एक चौका, एक थाली गढ़ती
मुंडेर पर रखती
सूरज को कहती जरा तेज़ी से सुखाये
उसके बनाये बर्तन
रात भर चैन ना लेती
नाखून के सूखे माटी को खुरचती
सबकी नजर बचा देख आती आंगन का मुंडेर
बस सूखने ही वाले हैं बर्तन
लड़का मिट्टी से बनाता चार पहिया
जंगलों से चुनता लकड़ी
सजाता बैलगाड़ी
लड़की अपने बर्तन चौका के साथ
अपनी गत्ते की गुडिय़ा लाती

दोनों आंगन के दूसरे कोने से यात्रा करते हुए
ऊपर छत की बरसाती में पहुंचते
नीम के पत्तों का कसोरा खट्टी बेर का दोना
पुडिय़ा में बंधा चटपटा नमक

ज़िन्दगी बैलगाड़ी के पीछे भागती लड़की को
थका गई गत्ते की गुडिय़ा कुरूप सी है
याद के गमछे पर
लड़के के साथ लेटी लड़की बताती है
कभी दूर हुई ना तो उस तरफ वाला तारा बनूंगी
लड़का आसमान की गहरी नदी में
अपनी बैलगाड़ी डुबा देता
तीखी धूप ने बर्तन को सुखाया नहीं दरका दिया

समय ने सबसे मोहक तस्वीर खींची
मेरी शहरी डायरी में जलता है
कच्ची मिट्टी का चूल्हा
प्यार की सौंधी महक के साथ।</poem>
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