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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>वक्त फिर लद गया है
दिन की पीठ पर
जैसे सवार होते हैं बच्चे
पिता की पीठ पर
अब जिद है, चलना पड़ेगा
घाव जितना भी हो सहना पड़ेगा

वक्त करवाएगा
अपनी मनमानी
तुम ƒघोड़ा बनो
पीओ पानी
दिन ƒघिसटता रहेगा
आज भी आहिस्ता-आहिस्ता
शाम होते वक्त मुस्कराता हुआ
कूद जायेगा
देगा गालों पर मुस्कराता हुआ एक चुम्बन
एक जल्दी वाला आलिंगन

दिन डूब जायेगा
अगले दिन वक्त
कोई और खेल दिखायेगा...।</poem>
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