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Kavita Kosh से
|रचनाकार=शैलजा पाठक
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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी / शैलजा पाठक
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छनछनाती नहीं
कलाई पर गोल चिपकी सी होती हैं
जैसे कलेजे को ोरे घेरे रहता है दर्द
ठीक होली की शाम चुडि़हारिन
उतार लेगी पुरानी चूडिय़ां
रात वीराने चाचा का संदेसा
आज हम बड़का टोला में रुकेंगे
फागुनहटा चले तो गांव ार घर बड़ा याद आवे है
अम्मा कहती रही
धरती लाल रंग गई आज