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गेहूँ जौ के ऊपर सरसों की रंगीनी छाई है, <BR>पछुआ आ आ कर इसे झुलाती है, <BR>तेल से बसी लहरें कुछ भीनी भीनी,<BR>नाक में समा जाती हैं, <BR>सप्रेम बुलाती है मानो यह झुक-झुक कर। <BR>समीप ही लेटी मटर खिलखिलाती है, <BR>फूल भरा आँचल है, <BR>लगी किचोई है, <BR>अब भी छीमी की पेटी नहीं भरी है, <BR>बात हवा से करती, <BR>बल है कहीं नहीं इस के उभार में। <BR>यह खेती की शोभा है, <BR>समृद्धि है, <BR>गमलों की ऐयाशी नहीं है, <BR>अलग है यह बिल्कुल उस रेती की<BR>लहरों से जो खा ले पैरों की नक्काशी।<BR>यह जीवन की हरी ध्वजा है, <BR>इसका गाना प्राण प्राण में गूँजा है <BR>
मन मन का माना।