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<poem>गिरकर और सँभलकर कर पहुँचा.
वो मंज़िल तक चलकर पहुँचा.

कितनी आवभगत की उसने,
जब मैं वेश बदलकर पहुँचा.

जिसको छू न सका कोशिश कर,
उसके पास फिसलकर पहुँचा.

इतनी आँच बढ़ाई क्यों थी,
बाहर दूध उबलकर पहुँचा.

रिश्ते जोड़ दिए बच्चे ने,
माँ के पास मचलकर पहुँचा.

आग-हवा-नभ-मिटटी-पानी,
इन सबमें वो जलकर पहुँचा.

वो पहुँचा अपनों से आगे,
पर अपनों को छलकर पहुँचा.

आज किसी के होठों तक मैं,
गीत-ग़ज़ल में ढलकर पहुँचा.
</poem>
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