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रोक लेता है / कमलेश द्विवेदी

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<poem>मैं कैसे छोड़कर जाऊँ मुझे घर रोक लेता है.
नदी का रास्ता जैसे समंदर रोक लेता है.

कभी नाराज़ होकर वो उठा लेता है जब खंज़र,
झुका देता हूँ मैं गर्दन वो खंज़र रोक लेता है.

ग़लत हो काम कोई तो कभी मैं कर नहीं सकता,
कभी दिल रोक लेता है कभी डर रोक लेता है.

मुकद्दर ही कभी आगे बढ़ाता है किसी को तो,
किसी को आगे बढ़ने से मुकद्दर रोक लेता है.

पराया देश है उसको वहाँ अच्छा नहीं लगता,
मगर है बोझ कर्जे का जो सर पर, रोक लेता है.

न जाओ छोड़कर मुझको मैं ज़िंदा रह न पाऊंगा,
सदा मुझको वो इतनी बात कहकर रोक लेता है.

लिखा था नाम हम दोनों ने बचपन में कभी जिस पर,
इधर से जब गुज़रता हूँ वो पत्थर रोक लेता है.
</poem>
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