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युवा कवि प्रदीप मिश्र बहुत ही सघन और महीन संवेदनाओं के कवि हैं। उनकी कविता मितभाषी,गहरी लेकिन अत्यधिक सम्प्रेषणीय है। प्रदीप की कविताओं में संवेदना का फोर्स इतना अधिक है कि वह कविता के भाषिक उपकरणों से बेधते हुए सीधे पाठकों के अन्तर्मन तक पहुँचता है। प्रदीप ने अपनी इस विशेषता को पहचानते हुए अपनी कविता की भाषा को बहुत पारदर्शी और झीना बनाए रखा है। वे अपनी काव्य-भाषा को स्फीति, अलंकरण और शिल्प आदि अनावश्यक बोझ से बचाते हुए उसके साथ एक अद्भुत नियन्त्रित और सधा हुआ व्यवहार करते है। प्रदीप मिश्र अपनी कविताओं में मध्यमवर्गीय स्थूल और प्राय: प्रचलित उपादानों का प्रयोग न कर उसकी मूल चेतना को कविता के केन्द्र में रखते हैं। शायद इसलिए आपको प्रदीप की कविताओं में उस वर्ग के लम्बे-लम्बे विवरण नहीं मिलते बल्कि उसका ठोस धरातल और वे महीन रेशे दिखाई देते हैं जिससे उसकी बुनावट हुई है। “कुछ नहीं होने की तरह” कविता में एक थके हुए शरीर के सिर को एक ऐसी गोद की तलाश है जहाँ से उठ कर बच्चे जीवन की ओर चले गए हों। इस युवा कवि की कविताओं में एक जबर्दस्त जिजीविषा है। यह जिजीविषा एक कविताई उम्मीद भर न होकर जीवन के प्रति वास्तविक अनुराग है। “बुरे दिनों के कलैण्डरों में” कविता आशा की किरण को बहुत हौले से सहेजती जान पड़ती है। इस कविता में विरोधी मेटाफर्स को जरिए एक ऐसा टेक्स्ट रखा गया है जो अपने पाठ के बाहर भी बहुत कुछ कह जाता है। “बरसात में भीगती हुई लडक़ी” में थरथराती धरती और कांपती हुई लडक़ी का ऐसा साम्य समकालीन युवा कविता में अचम्भित करनेवाला है। “जय राम जी की” और “इस जगह का पता” कविताओं में कवि ने साम्प्रदायिकता पर सीधे प्रहार किया है। “कबूतर” कविता में युवा कवि की स्पष्ट राजनीतिक समझ और प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है। प्रदीप मिश्र मूलत: अपनी ईमानदार संवेदनाओं के जरिए अपनी कविता पाना चाहते हैं, वे कविता गढऩा नहीं बुनना चाहते हैं।
(समावर्तन २१, अगस्त २०१३ अंक से साभार)
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