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मेघराज – दो / प्रदीप मिश्र

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''' मेघराज – दो '''
 
 
मेघराज !
तुम पहली बार आए थे
तब धरती जल रही थी विरह वेदना में
और तुम बरसे इतना झमाझम
कि उसकी कोख हरी हो गई
 
मेघराज !
तुम आए थे कालीदास के पास
तब वे बंजर ज़मीन पर कुदाल चला रहे थे
तुम्हारे बरसते ही उफन पड़ी उर्वरा
उन्होंने रची इतनी मनोरम प्रकृति
 
मेघराज !
तुम तब भी आए थे
जब ज़ंगल में लगी थी आग
असफल हो गए थे मनुष्यों के सारे जुगाड़
ज़ंगल के जीवन में मची हुई थी हाहाकार
और अपनी बूंदों से
पी गए थे तुम सारी आग
 
मेघराज !
हम उसी ज़ंगल के जीव हैं
 
जब भी देखते हैं तुम्हारी तरफ़
हमारा जीवन हराभरा हो जाता है
 
आओ मेघराज !
कि बहुत कम नमी बची है
हमारी आँखों में
हमारा सारा पानी सोख लिया है सूरज ने
 
आओ मेघराज
नहीं तो हम आ जाऐंगे तुम्हारे पास
उजड़ जाएगी तुम्हारी धरती की कोख।
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