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|रचनाकार=प्रदीप मिश्र
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}}
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''' फिर तानकर सोएगा '''
खटर .... पट .... खटर .... पट
गूँज रही है पूरे गाँव में
गाँव सो रहा है
जुलाहा बुन रहा है
जुलाहा शताब्दियों से बुन रहा है
एक दिन तैयार कर देगा
गाँव भर के लिए कपड़ा
फिर तानकर सोएगा
जिस तरह चाँद सोता है
भोर होने के बाद ।
</poem>
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''' फिर तानकर सोएगा '''
खटर .... पट .... खटर .... पट
गूँज रही है पूरे गाँव में
गाँव सो रहा है
जुलाहा बुन रहा है
जुलाहा शताब्दियों से बुन रहा है
एक दिन तैयार कर देगा
गाँव भर के लिए कपड़ा
फिर तानकर सोएगा
जिस तरह चाँद सोता है
भोर होने के बाद ।
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