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बसन्त-7 / नज़ीर अकबराबादी

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<Poem>
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।हर एक गुलबदन ने मनाई बसन्त।।बसंत॥तवायफ़ तबायफ़ ने हरजाँ हरजां उठाई बसन्त।बसंत।इधर औ’ और उधर जगमगाई बसन्त।।बसंत॥::हमें फिर ख़ुदा खुदा ने इखाई बसन्त ।।1।।दिखाई बसंत॥1॥
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसन्ती बना।।बसंती बना॥सरापा वह सरसों का बन बने खेत-सा।वह नाज़ुक नाजु़क से हाथों से गड़ुवा उठा।।गडु़वा उठा॥::अज़ब अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसन्त ।।2।।बसंत॥2॥
वह सह कुर्ती बसन्ती बसंती वह गेंदे के हार।वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार।।इजार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसन्ती बहार।।बसंती बहार॥::तो भूली मुझे याद आई बसत ।।3।।बसंत॥3॥
वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल।।भूल॥कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।कबूल॥::निकाला इसे और छिपाई बसन्त ।।4।।बसंत॥4॥
वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार।।कतार॥वह जो दर्द दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार।ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार।।बार॥::पुकारा कि अब मैंने पाई बसन्त ।।5।।बसंत॥5॥
वह जोड़ा बसन्ती बसंती जो था ख़ुश खुश अदा।झमक अपने आलम की उसमें दिखा।।दिखा॥उठा आँख औ’ आंख औ नाज़ से मुस्करा।कहा लो मुबारक हो दिन आज का।।का॥::कि याँ यां हमको लेकर है आई बसन्त ।।6।।बसंत॥6॥
पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह।।ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह।।आह॥::तो क्या-क्या जिगर में समाई बसन्त ।।7।।बसंत॥7॥
वह पोशाक ज़र्द और मुँह मुंह चांद-सा।वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला।।मिला॥फिर उसमें जो ले साज़ खींची खीची सदा।समाँ समां छा गया हर तरफ़ तरफ राग का।।का॥::इस आलम से काफ़िर ने गाई बसन्त ।।8।।बसंत॥8॥
बंधा फिर वह राग बसन्ती बसंती का तार।हर एक तान होने लगी दिल के पार।।पार॥वह गाने की देख उसकी उसदम उस दम बहार।हुईज़र्द दीवारोदर एक बार॥गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥
यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां।
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥
यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥
बहारे बसंती पै रखकर निगाह। बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥12॥
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