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|रचनाकार=मोहन सोनी ‘चक्र’
|संग्रह= मंडाण / नीरज दइया
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<poem>
म्हैं कियां मांड सकूं
सांचली कविता
मजूरां खातर
जद कै मिलै मोकळा रिपिया म्हनैं
फगत बोलणै-बतळावणै रा।

म्हैं कियां उकेर सकूं
मनचायो चितराम
भूख रो
जद कै म्हैं
जीम सकूं मनचायो भोजन।

म्हैं कियां मैसूस कर सकूं
पीड़ जुलम री
जद कै म्हनैं हरमेस
मिलतो आयो
बगत सारू सांतरो मोको
खुद री बात कैवण रो।

म्हैं कियां समझ सकूं
आफळ वीं करसै री
जको कदै सूकै
अर कदै ओळां रै बिचाळै
हाथ मसळतो रैय जावै
जद कै म्हैं
दरस-ई नीं कर्या
आज तांणी किणी खेत रा।

अर म्हैं कियां
इण आखै दरसावां रो
मोस’र मिणियो सबदां सूं
मांड सकूं छेवट
एक साचली कविता।
</poem>
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