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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
उन होठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं
इंगलिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं
इस घर की खिड़की है छोटी, उस घर की ऊँची है मुँडेर
पार गली के दोनों लेकिन छुप-छुप नैन लड़ाते हैं
बिस्तर की सिलवट के क़िस्से सुनती हैं सूनी रातें
तन्हा तकिये को दरवाजे आहट से भरमाते हैं
चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं
सुलगी चाहत, तपती ख़्वाहिश, जलते अरमानों की टीस
एक बदन दरिया में मिल कर सब तूफ़ान उठाते हैं
घर-घर में तो आ पहुँचा है मोबाइल बेशक, लेकिन
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं
कितने आवारा मिसरे बिखरे हैं मेरी कॉपी में
शेरों में ढ़लने से लेकिन सब-के-सब कतराते हैं
(युगीन काव्या जनवरी 2013)
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|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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उन होठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं
इंगलिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं
इस घर की खिड़की है छोटी, उस घर की ऊँची है मुँडेर
पार गली के दोनों लेकिन छुप-छुप नैन लड़ाते हैं
बिस्तर की सिलवट के क़िस्से सुनती हैं सूनी रातें
तन्हा तकिये को दरवाजे आहट से भरमाते हैं
चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं
सुलगी चाहत, तपती ख़्वाहिश, जलते अरमानों की टीस
एक बदन दरिया में मिल कर सब तूफ़ान उठाते हैं
घर-घर में तो आ पहुँचा है मोबाइल बेशक, लेकिन
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं
कितने आवारा मिसरे बिखरे हैं मेरी कॉपी में
शेरों में ढ़लने से लेकिन सब-के-सब कतराते हैं
(युगीन काव्या जनवरी 2013)