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हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ऐ-मुहब्बत कर बैठे मश़हूर थी अपनी ज़िदादिली, दानिश्ता शरारत कर बैठे ।।बैठे।
कोशिश तो बहुत की हमने मग़र, पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी, घबरा के मुहब्बत कर बैठे ।।बैठे।
नज़रों से न करते पुरसिश-ए-ग़म, ख़ामोश ही रहना बेहतर था दीवानों को तुमने छेड़ दिया, वल्लाह कयामत कर बैठे ।।बैठे।
हर चीज़ नहीं इक मरकज़ पर, इक रोज़ इधर इक रोज़ उधर नफरत से न देशो दुश्मन को, शायद ये मुहब्बत कर बैठे ।।बैठे।
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