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यात्री / अज्ञेय

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अमूर्त्त हों <br>
(या धूर्त हों) <br>
किस किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में <br>धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा-- सजा— <br>
न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के) <br>
न जुटा पाथेय कुछ-- कुछ— <br>
मन्दिरों में न जा, न जा! <br> <br>
बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है, <br>
चलता जा <br>
माँग मांग कि यात्रा लम्बी हो; <br>पथ ही जैसे जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले; <br>
परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले, <br>
माँग मांग की यात्रान्त न हो; <br>
पथ पर ही भीतर से पकता <br>
तू बाहर सहज गलता जा। <br>
आज बोधि का धीमा स्वर सुना: <br>
तीर्थों में न भी हो पानी <br>
--या —या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता-- सत्ता— <br>
पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी: <br>
कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही। <br>
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