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Kavita Kosh से
|रचनाकार=वसीम बरेलवी
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शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं, किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता हैहै।
तुम आ गये गए हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों,ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता हैहै। जमीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती, जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है।</poem>