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केते ही प्रवीण फँसे माया के दल-दल में ,
ऐसा है विचित्र जाल भेद हूँ न पता है |
स्त्री और बाल बच्चे धाम धान संवार राखे ,
एते नष्ट होते कष्ट दिल में उठता है |
ऐसी यह माया, तासे बिगर जात काया,
लाखों भरमाया ऐसा झूंठ व्यर्थ नाता है |
कहता सुदामा प्रिय राम-कृष्ण राम भजो,
आनन्द ले सच्चा विप्र जो गोविन्द गुण गाता है |
 
अपना ना कोई प्रिया सुन री दे ध्यान चित्त,
संसार ये असार तामे झूठा ही नाता है |
स्वार्थ के मीत देख ना माने , कर प्रीत देख,
ऐसे सब मात-तात जात व्यर्थ भ्राता है |
सुत और दारा देख प्यारा से भी प्यारा देख,
सारा ही पसारा देख द्वन्द सा दिखता है |
कहता सुदामा तन धन अरु धाम झूठा ,
सच्चा तो वाही विप्र गोविन्द गुण गाता है |
 
बेर-बेर समझाव हूँ, आवत नहीं यकीन |
माया में फँस-फँस मरे , केते चतुर प्रवीण ||
 
है खान अवगुणों की माया,
हरि सुमरिण को भुलवाती है,
कहती है लाने को उसको,
घर बैठे व्याधि लगाती है |
माया वाले अंधे होकर,
नहीं सुमरिन जाप किया करते,
सत्कर्मों से रह दूर सदा,
मन माना पाप किया करते |
ऐ प्रिया इसी से बिता रहा,
यह समय प्रभु गुण गा-गा के,
अब हँसी बुढ़ापे में होगी,
माँगुगा द्रव्य वहाँ जाके |
 
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