भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
देह के जमे शिलाखण्ड से
मैं उतार कर अपनी केंचुली
समा देना चाहती है हूँ ख़ुद को
सख़्त चट्टानों के बीच
इतने क़रीब कि वह सोख ले मेरा उद्दाम ज्वर