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{{KKRachna
|रचनाकार=सुधीर सक्सेना
|संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना
}}
<Poem>
धुंध में डूबा है
पूरा शहर
और, पुरखों की स्मृतियों में
खोया हुआ है
समरकंद।

इधर से
बार-बार गुजरा था
घोड़े को ऐड़ लगाता
बगटुट अपना घोड़ा भगाता
आंखों में सपने लिए
शमशीर से इतिहास रचने को व्यग्र
बाबर
यहीं से निकला था
बाबर
यहीं से निकल बाबर ने
पार किया था हिंदूकुश।

आशीर्वचन बरसाये थे
सितारों ने
बाबर के सुनहरे चोगे पर
बोसा लिया था
धरती ने

बाबर के कदमों का
चला गया बाबर
एक दिन
तेगों, बर्छियों और
तोपों के काफिलें के साथ
बारूद के धमाकों से धरती हिलाता,
अपने मुल्क में
फिर लौटने का
ख्वाहिशमंद

बाबर
गया तो
लौटा नहीं,
लौटा नहीं
जाने के बाद
बाबर

बांहें फैलाए
धड़कता दिल लिए
इंतजार करता रहा समराकंद

मौत ने चूमा जब
बाबर का ललाट
दूर दिल्ली में

बाबर की आंखों में बसा था समरकंद
बाबर के होठों पर था समरकंद
बाबर के सीने में था समरकंद
बस, समरकंद में नहीं था बाबर।
<Poem>
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