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Kavita Kosh से
मैं जेल की नींव का
पत्थर बोल रहा हूँ
मैं--जो समुद्र -तट का पत्थर था
तब लहरें मुझे नहलाती थीं
तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था
जेल का पत्थर और समुद्र -तट का पत्थर
दो बिछुड़े हुए भाई हैं
एक पानी में भीगता है
दूसरा खून ख़ून में
मैं पत्थर हूँ फिर भी
चमकती है; आज़ादी है
मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने
मुझे भी एक दिल बख्शा बख़्शा है
जो धड़कता है समुद्र के लिए
और बुलबुल के गीत के लिए
मैं गुजरे गुज़रे कल का रक्त हूँ
वर्तमान की धमनियों में
उछाल मारता हुआ
जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी
और दर्द का मैं गवाह हूँ
'इंकलाब ज़िंदाबादज़िन्दाबाद' के नारे
जो मुझे हिला देते थे
उनके हौसले जो मुझसे भी
हौसले टूटते न थे
घोड़ों की टापों
ज़ंजीरों की आवाजोंआवाज़ों
और कोड़ों की मार के बीच
भूख और घाव और रक्त और दर्द के
तो यह सपना था
सपना आज़ादी का
और यह कैसे अंट अँट सकता था
तेरह बाइ सात की काल कोठरी में
जिसकी जड़ें
और क्या थी यह आज़ादी
क्या यह समुद्र में उडऩे उड़ने वाली
मछली थी नीले रंग की
या तट का मूंगा लाल?
क्या थी ये आज़ादी
जिसके लिये लिए ये लोग
अपना सब कुछ छोड़कर
कूद पड़े थे आग में
पागल हो सकता है कोई भी
शेर अली तुम कैसे फटकार कर
मियाद के पूरी होने के पहले
पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र
जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए
अपने अंतिम अन्तिम दिनों में
तुम भी तो मरे कलकत्ता में
अपने भी स्वदेश से
बहुत-बहुत दूर
जो दूसरों का देश छीनता है
चाँद की तरह असंभव असम्भव हो जाता है
उसका भी स्वदेश
ओ सच्चे साथी भगत सिंह के
मेरे सिंह! मेरे महावीर
तुम भी तो झुके नहीं अंत अन्त तकतोडऩे तोड़ने तुम्हारी भूख हड़ताल
आतताई जेलर ने डाली
पिलाने दूध
जो पेट की जगह
जेल की हवा
ऊपर उठती है तो आकाश का आईना
आज़ादी तारे की तरह टूटकर
गिरती है नीचे धरती पर
गर्मी और पसीना
घुटन और प्यास
ये वो धरती है जहां जहाँ हम मरते हैं
और बार-बार पैदा होते हैं
जी हाँ!
और हमारी गिनती करने का
कोई अर्थ नहीं
हमने बस अपने हाथ उठायेउठाएकिसी के आगे फैलाये फैलाए नहीं
और ये आवाज़ें
अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ
भटक रही हैं
क्या तुमने कभी सोचा है--कैसे बनी अंदमान अन्दमान मेंसमुद्र की आवाज़!
और क्या कभी बन सकती है
या इराक को
वियतनाम को जलते देखो
या फिलिस्तीन फ़िलिस्तीन को
देश क्या वन की तरह होते हैं
जिनका जलना एक जैसा होता है!
रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी
और भीतर जेल में
आती थी उनकी खुशबूख़ुशबूकि खुशबुओं ख़ुशबुओं की कोई जेल नहीं होती
वे लाती हैं अपने साथ
धरती की महक भी
'कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की
कैसे लाघेंगे समन्दर
हम परिंदे परिन्दे तो नहीं'
'तब हम गायेंगे गाएँगे ज़ोर-ज़ोरहम गायेंगेगाएँगे
और हमारे गाने की आवाज़
परिन्दों की तरह उड़कर
अगर जीने को मिले
एक मुकम्मल दिन...
मैं समुद्र में उडऩे उड़ने वाली
नीली मछली के गीत गाऊँगा...
और दो समुन्दरों के बीच
एक नन्हें द्वीप जितनी
नींद लूँगा
मेरे सपनों की खुशबू ख़ुशबू फैल जाएगी
पूरे महाद्वीप में
जैसे वन तुलसी की गंधगन्धकोई रोक नहीं पायेगा पाएगा उसे
नहीं; कोई सलाख नहीं
कोई सेल्युलर जेल नहीं...'
बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं
मगर जेल में
लिखी हुईं यातना की स्याही से
घायल परिन्दों-सी
फडफ़ड़ाती तारीखेंतारीख़ें
पछाड़ खाते समन्दर-सी
साहूकार रुपए गिनता है
गड़ेरिया भेड़ों को
गोधूलि बेला में
मगर तारीखें तारीख़ें कोई नहीं गिनता
जेल में
जैसे नरगिस और सूरजमुखी में फर्क फ़र्क हैफर्क फ़र्क है 'हाँ' और 'ना' मेंजब तुम कहते हो -- हाँ
तब केंचुए में बदल जाते हो
वह केवल 'ना' है
जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है
कोई दीवार पर लिखता है--ना
कोई पत्थर पर
कोई चीखता चीख़ता है भरी सभा मेंहुकूमत के आगे--ना
और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है
संसार से जो चीज गायब चीज़ ग़ायब हो रही है
वह 'ना' है
जो आदमी की आत्मा है
तुम जब प्रतिरोध करते हो
तो कई पगडंडियाँपगडण्डियाँफूटती हैं सफर सफ़र के लिए
और घास में फूल आने लगते हैं
प्रतिरोध भी एक आईना है
बीत गया '47 कभी का
अगस्त का सूर्य था लाल
हमारे खून ख़ून की तरह
और वह बँधा नहीं था
लेकिन देखो तो
अब भी
हाँ; अब भी
हवा में ये कैसी गंध गन्ध हैगरजता गरज़ता है अब भी समुद्र
पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर
और यह बहुत अज़ीब है
कि हवा में
अब भी सेल्युलर जेल की गंध गन्ध है
तेरह बाइ सात की
काल-कोठरी की फिंटी हुई गंधगन्ध
और उड़ते हुए
बस दीवार ख़त्म होती है यहाँ
सेल्युलर जेल की
सेल्युलर जेल खत्म ख़त्म नहीं होती।
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