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दृश्य : एक / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=कटे अँगूठे का पर्व / कुमार रवींद्र
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<poem>
[वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है, समूहगान हो जाती है।]
समूहगान : सूर्योदय से पहले का
गहरा अंधकार
सूना वन-प्रान्तर महाकार,
जैसे रहस्य की
आकृति हो
या घना हो गया हो विचार।
[हर ओरहवाएँ चलती हैंया रुकती हैं;उनमें है स्थिरकुछ सपनों का स्वीकारऔर वन से स्वर बजता है वीणा के तारों-सा रह-रहःसरगमअतीत की गूँज उठती है। यादों-साया फिर भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथर;वन में वह गूँज शब्द बनती चुपके-चुपके पलता है, समूहगान हो जाती है।]<br>समूहगान : सूर्योदय से पहले का<br>साँवली हवाओं के मन में गहरा अंधकार <br>उजली-उजली माँसलता है।सूना वनजा रहे दूर अब हैं विलाप-प्रान्तर महाकार,<br>जैसे रहस्य कुत्तों की<br>आकृति हो<br>ध्वनि या घना हो गया हो विचार।<br><br>बीच-बीच में ‘हुआ-हुआ’ करते अतुकान्त श्रृगालों की पुकार।
हर ओर<br>उग रहाहवाएँ चलती हैं<br>या रुकती हैं;<br>उनमें है स्थिर<br>कुछ सपनों का स्वीकार<br>और वन बजता है <br>वीणा के तारोंमहत्वाकाँक्षा-सा रह-रहः<br>सरगम<br>सूर्योदय का मोहक कलरव,अतीत की यादों-सा<br> पर अभी या फिर <br>भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथरपड़ा है अन्धकार;<br>वन में वह चुपके-चुपके पलता है,<br>साँवली हवाओं के मन में <br>उजली-उजली माँसलता है।<br>जा रहे दूर अब हैं विलाप-<br>कुत्तों की ध्वनि <br>या बीच-बीच में ‘हुआ-हुआ’ करते <br>अतुकान्त श्रृगालों की पुकार।<br><br>आवरण अँधेरे का ओढ़े़ जग रही धरा।
उग रहा<br>महत्वाकाँक्षाविस्मय का क्षण-सा <br>सूर्योदय आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं।यह किसके पाँवों का मोहक कलरव,<br>सुर बजता नीरव मेंजैसे हो कोई ठेका देता तबले पर अभी <br>पड़ा है अन्धकारया मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा।जंगल का अपना प्रान्त छोड़ ये कहाँ जा रहे पाँव; <br>आवरण अँधेरे कौन-सी राह, कहाँ मंजिल इनकी;धरती के किन अवकाशों कोधूने का ओढ़े़ जग रही धरा।<br><br>इनका है आग्रह ?
विस्मय [एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का क्षणचेहरा-<br>आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं।<br>यह किसके पाँवों मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का सुर बजता नीरव में<br>जैसे हो कोई ठेका देता तबले आभाश होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर<br>या मन में पलते असन्तोषचलती हुई आकृति इधर-चिन्ताओं-सा।<br>जंगल का अपना प्रान्त छोड़ <br>ये कहाँ जा रहे पाँव;<br>कौन-सी राहउधर देखती है, <br>कहाँ मंजिल इनकी;<br>धरती के किन अवकाशों को<br>धूने का इनका ठिठकती है आग्रह ?<br><br>जैसे कुछ विचार कर रही हो।]
[एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का चेहरा-मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का आभाश होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर चलती हुई आकृति इधर-उधर देखती है, ठिठकती है जैसे कुछ विचार कर रही हो।]<br><br>विचार-स्वर : सूर्योदय का आभास <br>हवा में फिर से है।<br>कितने जंगल <br>कितनी सीमाएँ लाँघी हैं इतने दिन में <br>है याद नहीं;<br>यात्रा है लम्बी होती गयी<br>विचारों-सी।<br><br> ये पाँव नहीं हैं <br>घावों की संज्ञाएँ हैं;<br>सन्तोष मुझे <br>मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं को<br>दुष्कर अलंघ्य यह दूरी <br>मेरी मित्र बने,<br>कर पार जिसे <br>आ नहीं पाएँगे पिता-बन्धु;<br>मन को मसोसकर रह जाएँगे,<br>सोचेंगे कि<br>एकलव्य हो गया शेष;<br>कुछ शोक मना <br>अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी;<br> उनकी पीड़ा इस नये जन्म की पोशक हो।<br><br>
सीमित अतीत को छोड़<br>ये पाँव नहीं हैं खोजता मैं भविष्यघावों की संज्ञाएँ हैं;<br>आकाश-धरा के पार नये आलोकों को।<br>सन्तोष मुझे मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं कोदुष्कर अलंघ्य यह सूर्योदय <br>दूरी मेरी जीवन की ज्योति बने। <br>मित्र बने,यह रात अनोखी <br>कर पार जिसे जिसने मुझे पुकारा थाआ नहीं पाएँगे पिता-<br>बन्धु;मेरे सपनों की संधि स्थल-<br>मन को मसोसकर रह जाएँगे,सोचेंगे किएकलव्य हो रही शेष। <br>गया शेष;आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश। <br>कुछ शोक मना अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी इच्छा-सा लम्बा चौड़ा <br>;यह हरी धरा का सुखी पाट <br>मेरे पाँवों के नीचे है। <br>मेरे मन-सी<br>कलकल करती<br>यह नदी जहाँ तक जाती है,<br>मेरी यात्रा उनकी पीड़ा इस नये जन्म की बने वही सीमा-रेखा।<br><br>पोशक हो।
कुछ लोग इधर ही आते हैं,<br>सीमित अतीत को छोड़उनसे पूछूँ <br>खोजता मैं भविष्य;आकाश-धरा के पार नये आलोकों को।यह सूर्योदय मेरी जीवन की ज्योति बने। यह रात अनोखी जिसने मुझे पुकारा था-मेरे गंतव्य अभी सपनों की संधि स्थल-हो रही शेष। आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश। मेरी इच्छा-सा लम्बा चौड़ा यह हरी धरा का सुखी पाट मेरे पाँवों के नीचे है। मेरे मन-सीकलकल करतीयह नदी जहाँ तक जाती है कितनी दूर और। <br><br>,मेरी यात्रा की बने वही सीमा-रेखा।
[सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से भर जाते हैं। एक किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का नवयुवा है वह। कान्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माथे पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, जिसमें कुछ पंख खुँसे लोग इधर ही आते हैं ! कमर में एक छुरा पटके से बँधा है। नंगे पाँव ! सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, पके-ताबें में ढला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता पूछूँ मेरे गंतव्य अभी है-]<br><br>कितनी दूर और।
एकलव्य: भद्रजनों !<br>यह ग्राम कौन-सा<br>और कौन सा यह प्रदेश;<br>यह नदी कौन-सी <br>और कहाँ तक जाती है;<br>है कितनी दूर हस्तिनापुर ?<br>मेरा गंतव्य वही नगरी।<br><br> [लोग ग़ौर सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से उसे देखते भर जाते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का समायु लगता नवयुवा हैवह। कान्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माथे पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, उसे सम्बोधित करता जिसमें कुछ पंख खुँसे हैं ! कमर में एक छुरा पटके से बँधा है।नंगे पाँव ! सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, पके-ताबें में ढला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता है-]<br><br>
एकलव्य: भद्रजनों !यह ग्राम कौन-साऔर कौन सा यह प्रदेश;यह नदी कौन-सी और कहाँ तक जाती है;है कितनी दूर हस्तिनापुर ?मेरा गंतव्य वही नगरी। [लोग ग़ौर से उसे देखते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो एकलव्य का समायु लगता है, उसे सम्बोधित करता है।] युवक : यह कुरुप्रदेश का गुरुग्राम,<br>है गंगा का यह तट-प्रदेश;<br>थोड़ी ही दूर यहाँ से है हस्तिनापुरी।<br>कौरव-गुरुओं का यही क्षेत्र-<br>है कृपाचार्य की जन्मभूमि।<br>और पार नदी के वह आश्रम उनका ही है।<br>वह श्वेत पताका<br>उस आश्रम की शोभा है।<br>उस आश्रम से कुछ आगे<br>नगरी से पहले <br>हैं रहते गुरुवर द्रोण;<br>हैं वही सिखाते राजकुमारों को <br>अस्त्रों-शस्त्रों का संचालन।<br>उनके आश्रम पर <br>ध्वजा गेरुआ फहराती;<br>उसके आगे ही....<br>राजमहल के कंगूरे...<br><br>
[इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट की ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं।]
</poem>
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