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Kavita Kosh से
मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है
मुद्दत से बिला बात ही तुम रूठे रहे हो
क्या बात है? अब मुझको मनाने की पड़ी है
इस वक़्त तुझे लौट के आने की पड़ी है
उजलत है तुझे आज ही, जाने की पड़ी है
होता ही नहीं काम कोई वक़्त पे उनसे
अब सरसों हथेली पे उगाने कि पड़ी है
ऐ काश! मेरा ख़्वाब हो शर्मिंद-ए-ताबीर
नफ़रत कि मुझे आग बुझाने कि पड़ी है
खाने के लिए जीना, नहीं है कोई जीना
समझेंगे वो कैसे जिन्हें खाने की पड़ी है
सुनता है 'रक़ीब' आपकी बातों को वो लेकिन
सुनने की नहीं उसको सुनाने की पड़ी है
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