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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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एकादश सर्ग: सगजग
में जाग्रति पैदा कर दूँ¸
वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं।
कैसे वांछित कविता कर दूं¸
मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं॥1॥
<font size=4>एकादश सर्ग: सगजग</font><br><br>अपने उर की इच्छा भर दूं¸ ऐसा है कोई यन्त्र नहीं। हलचल–सी मच जाये पर यह लिखता हूँ रण षड्यन्त्र नहीं॥2॥
में जाग्रति पैदा कर दूं¸ <Br/>वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं। <Br/>कैसे वांछित कविता कर दूं¸ <Br/>मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं।।1।। <Br/><Br/>अपने उर की इच्छा भर दूं¸ <Br/>ऐसा है कोई यन्त्र नहीं। <Br/>हलचल–सी मच जाये पर <Br/>यह लिखता हूं रण षड््यन्त्र नहीं।।2।। <Br/><Br/>ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸ <Br/>क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले। <Br/>है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸ <Br/>अपनी सेवा पर शक कर ले।।3।। <Br/><Br/>ले॥3॥ दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸ <Br/>हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है। <Br/>यह हृदय–विदारक वही समर <Br/>जिसका लिखना दुर्लभ–सा है।।4।। <Br/><Br/>है॥4॥ फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸ <Br/>लिखती प्राचीन कहानी है। <Br/>लिखती हल्दीघाटी रण की¸ <Br/>वह अजर–अमर कुबार्नी है।। 5।। <Br/><Br/>है॥ 5॥ सावन का हरित प्रभात रहा <Br/>अम्बर पर थी घनघोर घटा। <Br/>फहरा कर पंख थिरकते थे <Br/>मन हरती थी वन–मोर–छटा।।6।। <Br/><Br/>वन–मोर–छटा॥6॥ पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन <Br/>पर्वत की हरी वनाली पर। <Br/>्'पी कहां्कहाँ' पपीहा बोल रहा <Br/>तरू–तरू की डाली–डाली पर।।7।। <Br/><Br/>पर॥7॥ वारिद के उर में चमक–दमक <Br/>तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही। <Br/>रह–रह कर जल था बरस रहा <Br/>रणधीर–भुजा थी फड़क रही।।8।। <Br/><Br/>रही॥8॥ था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर <Br/>तटिनी की भरी जवानी थी। <Br/>बढ़ चली तरंगों की असि ले <Br/>चण्डी–सी वह मस्तानी थी।।9।। <Br/><Br/>थी॥9॥ वह घटा चाहती थी जल से <Br/>सरिता–सागर–निझर्र भरना। <Br/>यह घटा चाहती शोणित से <Br/>पर्वत का कण–कण तर करना।।10।। <Br/><Br/>करना॥10॥ धरती की प्यास बुझाने को <Br/>वह घहर रही थी घन–सेना। <Br/>लोहू पीने के लिए खड़ी <Br/>यह हहर रही थी जन–सेना।।11।। <Br/><Br/>जन–सेना॥11॥ नभ पर चम–चम चपला चमकी¸ <Br/>चम–चम चमकी तलवार इधर। <Br/>भ्ौरव भैरव अमन्द घन–नाद उधर¸ <Br/>दोनों दल की ललकार इधर।।12।। <Br/><Br/>इधर॥12॥ वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸ <Br/>यह भीम–नाद से तड़क उठी। <Br/>भीषण–संगर की आग प्रबल <Br/>बैरी–सेना में भड़क उठी।।13।। <Br/><Br/>उठी॥13॥ डग–डग–डग–डग रण के डंके <Br/>मारू के साथ भयद बाजे। <Br/>टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸ <Br/>कट–कट मतंग के रद बाजे।।14।। <Br/><Br/>बाजे॥14॥ कलकल कर उठी मुगल सेना <Br/>किलकार उठी¸ ललकार उठी। <Br/>असि म्यान–विवर से निकल तुरत <Br/>अहि–नागिन–सी फुफकार उठी।।15।। <Br/><Br/>उठी॥15॥ शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸ <Br/>कर की कटारियां कटारियाँ तरज उठीं। <Br/>खूनी बरछे–भाले चमके¸ <Br/>पर्वत पर तोपें गरज उठीं।।16।। <Br/><Br/>उठीं॥16॥ फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा <Br/>अकबर का अभिमानी निशान। <Br/>बढ़ चला कटक लेकर अपार <Br/>मद–मस्त द्विरद पर मस्त–मान।।17।। <Br/><Br/>मस्त–मान॥17॥ कोलाहल पर कोलाहल सुन <Br/>शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल। <Br/>मेवाड़–केसरी गरज उठा <Br/>सुनकर अरि की ललकार प्रबल।।18। <Br/>प्रबल॥18। हर एकलिंग को माथ नवा <Br/>लोहा लेने चल पड़ा वीर। <Br/>चेतक का चंचल वेग देख <Br/>था महा–महा लiज्जत समीर।।19।। <Br/><Br/>लज्जत समीर॥19॥ लड़–लड़कर अखिल महीतल को <Br/>शोणित से भर देनेवाली¸ <Br/>तलवार वीर की तड़प उठी <Br/>अरि–कण्ठ कतर देनेवाली।।20।। <Br/><Br/>देनेवाली॥20॥ राणा का ओज भरा आनन <Br/>सूरज–समान चमचमा उठा। <Br/>बन महाकाल का महाकाल <Br/>भीषण–भाला दमदमा उठा।।21।। <Br/><Br/>उठा॥21॥ मेरी प्रताप की बजी तुरत <Br/>बज चले दमामे धमर–धमर। <Br/>धम–धम रण के बाजे बाजे¸ <Br/>बज चले नगारे घमर–घमर।।22।। <Br/><Br/>घमर–घमर॥22॥ जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश <Br/>खेमों से निकले राजपूत। <Br/>झट झंडे के नीचे आकर <Br/>जय प्रलयंकर बोले सपूत।।23।। <Br/><Br/>सपूत॥23॥ अपने पैने हथियार लिये <Br/>पैनी पैनी तलवार लिये। <Br/>आये खर–कुन्त–कटार लिये <Br/>जननी सेवा का भार लिये।।24।। <Br/><Br/>लिये॥24॥ कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸ <Br/>कुछ योधा पैदल ही आये। <Br/>कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸ <Br/>कुछ शर से तरकस भर लाये।।25।। <Br/><Br/>लाये॥25॥ रण–यात्रा करते ही बोले <Br/>राणा की जय¸ राणा की जय। <Br/>मेवाड़–सिपाही बोल उठे <Br/>शत बार महाराणा की जय।।26।। <Br/><Br/>जय॥26॥ हल्दीघाटी के रण की जय¸ <Br/>राणा प्रताप के प्रण की जय। <Br/>जय जय भारतमाता की जय¸ <Br/>मेवाड़–देश–कण–कण की जय।।27। <Br/>जय॥27। हर एकलिंग¸ हर एकलिंग <Br/>बोला हर–हर अम्बर अनन्त। <Br/>हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत <Br/>हर हर निनाद से दिiग्दगन्त।।28।। <Br/><Br/>दिग्दिगन्त॥28॥ घनघोर घटा के बीच चमक <Br/>तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की। <Br/>झन–झन असि की झनकार इधर <Br/>कायर–दल की छाती धड़की।।29।। <Br/><Br/>धड़की॥29॥ अब देर न थी वैरी–वन में <Br/>दावानल के सम छूट पड़े। <Br/>इस तरह वीर झपटे उन पर <Br/>मानों हरि मृग पर टूट पड़े।।30।। <Br/><Br/>पड़े॥30॥ मरने कटने की बान रही <Br/>पुश्तैनी इससे आह न की। <Br/>प्राणों की रंचक चाह न की <Br/>तोपों की भी परवाह न की।।31।। <Br/><Br/>की॥31॥ रण–मत्त लगे बढ़ने आगे <Br/>सिर काट–काट करवालों से। <Br/>संगर की मही लगी पटने <Br/>क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों से।।32। <Br/>से॥32। हाथी सवार हाथी पर थे¸ <Br/>बाजी सवार बाजी पर थे। <Br/>पर उनके शोणित–मय मस्तक <Br/>अवनी पर मृत–राजी पर थे।।33।। <Br/><Br/>थे॥33॥ कर की असि ने आगे बढ़कर <Br/>संगर–मतंग–सिर काट दिया। <Br/>बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ <Br/>बरछी ने भूतल पाट दिया।।34।। <Br/><Br/>दिया॥34॥ गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸ <Br/>हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा। <Br/>कोई लड़ता उत्तान गिरा¸ <Br/>कोई लड़कर बलवान गिरा।।35।। <Br/><Br/>गिरा॥35॥ झटके से शूल गिरा भू पर <Br/>बोला भट मेरा शूल कहां <Br/>कहाँ शोणित का नाला बह निकला¸ <Br/>अवनी–अम्बर पर धूल कहां।।36।। <Br/><Br/>कहाँ॥36॥ आंखों आँखों में भाला भोंक दिया <Br/>लिपटे अन्धे जन अन्धों से। <Br/>सिर कटकर भू पर लोट लोट <Br/>लड़ गये कबन्ध कबन्धों से।।37।। <Br/><Br/>से॥37॥ अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸ <Br/>अपन सीने के पार किया। <Br/>इस तरह निकट बैरी–उर को <Br/>कर–कर कटार से फार दिया।।38।। <Br/><Br/>दिया॥38॥ कोई खरतर करवाल उठा <Br/>सेना पर बरस आग गया। <Br/>गिर गया शीश कटकर भू पर <Br/>घोड़ा धड़ लेकर भाग गया।।39।। <Br/><Br/>गया॥39॥ कोई करता था रक्त वमन¸ <Br/>छिद गया किसी मानव का तन। <Br/>कट गया किसी का एक बाहु¸ <Br/>कोई था सायक–विद्ध नयन।।40।। <Br/><Br/>नयन॥40॥ गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸ <Br/>खर रक्त–वेग से कटी धरा। <Br/>चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸ <Br/>रण करने को भी घटी धरा।।41।। <Br/><Br/>धरा॥41॥ तो भी रख प्राण हथेली पर <Br/>वैरी–दल पर चढ़ते ही थे। <Br/>मरते कटते मिटते भी थे¸ <Br/>पर राजपूत बढ़ते ही थे।।42।। <Br/><Br/>थे॥42॥ राणा प्रताप का ताप तचा¸ <Br/>अरि–दल में हाहाकर मचा। <Br/>भेड़ों की तरह भगे कहते <Br/>अल्लाह हमारी जान बचा।।43।। <Br/><Br/>बचा॥43॥ अपनी नंगी तलवारों से <Br/>वे आग रहे हैं उगल कहां। <Br/>कहाँ। वे कहां कहाँ शेर की तरह लड़ें¸ <Br/>हम दीन सिपाही मुगल कहां।।44।। <Br/><Br/>कहाँ॥44॥ भयभीत परस्पर कहते थे <Br/>साहस के साथ भगो वीरो! <Br/>पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी <Br/>अकबर के हाथ लगो वीरो!।।45।। <Br/><Br/>॥45॥ यह कहते मुगल भगे जाते¸ <Br/>भीलों के तीर लगे जाते। <Br/>उठते जाते¸ गिरते जाते¸ <Br/>बल खाते¸ रक्त पगे जाते।।46।। <Br/><Br/>जाते॥46॥ आगे थी अगम बनास नदी¸ <Br/>वर्षा से उसकी प्रखर धार। <Br/>थी बुला रही उनको शत–शत <Br/>लहरों के कर से बार–बार।।47।। <Br/><Br/>बार–बार॥47॥ पहले सरिता को देख डरे¸ <Br/>फिर कूद–कूद उस पार भगे। <Br/>कितने बह–बह इस पार लगे¸ <Br/>कितने बहकर उस पार लगे।।49।। <Br/><Br/>लगे॥49॥ मंझधार तैरते थे कितने¸ <Br/>कितने जल पी–पी ऊब मरे। <Br/>लहरों के कोड़े खा–खाकर <Br/>कितने पानी में डूब मरे।।50।। <Br/><Br/>मरे॥50॥ राणा–दल की ललकार देख¸ <Br/>अपनी सेना की हार देख। <Br/>सातंक चकित रह गया मान¸ <Br/>राणा प्रताप के वार देख।।51।। <Br/><Br/>देख॥51॥ व्याकुल होकर वह बोल उठा <Br/>्"लौटो लौटो न भगो भागो। <Br/>मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा <Br/>ठहरो–ठहरो फिर से जागो।।52।। <Br/><Br/>जागो॥52॥ देखो आगे बढ़ता हूं हूँ मैं¸ <Br/>बैरी–दल पर चढ़ता हूं हूँ मैं। <Br/>ले लो करवाल बढ़ो आगे <Br/>अब विजय–मन्त्र पढ़ता हूं मैं।्हूँ मैं।"।।53।। <Br/><Br/>॥53॥ भगती सेना को रोक तुरत <Br/>लगवा दी भ्ौरव–काय भौरव–काय तोप। <Br/>उस राजपूत–कुल–घातक ने <Br/>हा¸ महाप्रलय–सा दिया रोप।।54।। <Br/><Br/>रोप॥54॥ फिर लगी बरसने आग सतत्् <Br/>सतत् उन भीम भयंकर तोपों से। <Br/>जल–जलकर राख लगे होने <Br/>योद्धा उन मुगल–प्रकोपों से।।55।। <Br/><Br/>से॥55॥ भर रक्त–तलैया चली उधर¸ <Br/>सेना–उर में भर शोक चला। <Br/>जननी–पद शोणित से धो–धो <Br/>हर राजपूत हर–लोक चला।56।। <Br/><Br/>चला।56॥ क्षणभर के लिये विजय दे दी <Br/>अकबर के दारूण दूतों को। <Br/>माता ने अंचल बिछा दिया <Br/>सोने के लिए सपूतों को।।57।। <Br/><Br/>को॥57॥ विकराल गरजती तोपों से <Br/>रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई। <Br/>उस महायज्ञ में आहुति–सी <Br/>राणा की सेना हुनी गई।।58।। <Br/><Br/>गई॥58॥ बच गये शेष जो राजपूत <Br/>संगर से बदल–बदलकर रूख। <Br/>निरूपाय दीन कातर होकर <Br/>वे लगे देखने राणा–मुख।।59।। <Br/><Br/>राणा–मुख॥59॥ राणा–दल का यह प्रलय देख¸ <Br/>भीषण भाला दमदमा उठा। <Br/>जल उठा वीर का रोम–रोम¸ <Br/>लोहित आनन तमतमा उठा।।60।। <Br/><Br/>उठा॥60॥ वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर <Br/>काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण। <Br/>घायल नाहर–सा गरज उठा <Br/>क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर बाण।।61।। <Br/><Br/>बाण॥61॥ बोला ्"आगे बढ़ चलो शेर¸ <Br/>मत क्षण भर भी अब करो देर। <Br/>क्या देख रहे हो मेरा मुख <Br/>तोपों के मुंह मुँह दो अभी फेर।्फेर।"।।62।। <Br/><Br/>॥62॥ बढ़ चलने का सन्देश मिला¸ <Br/>मर मिटने का उपदेश मिला। <Br/>्"दो फेर तोप–मुख्" राणा से <Br/>उन सिंहों को आदेश मिला।।63।। <Br/><Br/>मिला॥63॥ गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸ <Br/>मरते जाते चढ़ते जाते। <Br/>मिटते जाते¸ कटते जाते¸ <Br/>गिरते–मरते मिटते जाते।।64।। <Br/><Br/>जाते॥64॥ बन गये वीर मतवाले थे <Br/>आगे वे बढ़ते चले गये। <Br/>राणा प्रताप की जय करते <Br/>तोपों तक चढ़ते चले गये।।65।। <Br/><Br/>गये॥65॥ उन आग बरसती तोपों के <Br/>मुंह मुँह फेर अचानक टूट पड़े। <Br/>बैरी–सेना पर तड़प–तड़प <Br/>मानों शत–शत पत्रि छूट पड़े।।66।। <Br/><Br/>पड़े॥66॥ फिर महासमर छिड़ गया तुरत <Br/>लोहू–लोहित हथियारों से। <Br/>फिर होने लगे प्रहार वार <Br/>बरछे–भाले तलवारों से।।67।। <Br/><Br/>से॥67॥ शोणित से लथपथ ढालों से¸ <Br/>करके कुन्तल¸ करवालों से¸ <Br/>खर–छुरी–कटारी फालों से¸ <Br/>भू भरी भयानक भालों से।।68।। <Br/><Br/>से॥68॥ गिरि की उन्नत चोटी से <Br/>पाषाण भील बरसाते। <Br/>अरि–दल के प्राण–पखेरू <Br/>तन–पिंजर से उड़ जाते।।69।। <Br/><Br/>जाते॥69॥ कोदण्ड चण्ड–रव करते <Br/>बैरी निहारते चोटी। <Br/>तब तक चोटीवालों ने <Br/>बिखरा दी बोटी–बोटी।।70।। <Br/><Br/>बोटी–बोटी॥70॥ अब इसी समर में चेतक <Br/>मारूत बनकर आयेगा। <Br/>राणा भी अपनी असि का¸ <Br/>अब जौहर दिखलायेगा।।71।। <Br/>दिखलायेगा॥71॥ <Br/poem>