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कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥
कोउ अपराध छमावैं निज, पग परि कर जोरैं।
कोउ झिझकारैं कोउन, बंक जुग भौंह मरोरैं॥१०६॥
सुनि कोलाहल जब प्रधान गृह स्वामिन आवत।
भागत अपराधी तिन कहँ कोऊ ढूँढ़ि न पावत॥१०७॥
यों वह बालक पन के क्रीड़ा कौतुक हम सब।
करत रहे जहँ सो थल हूँ नहिं चीन्ह परत अब॥१०८॥
नहिं रकबा को नाम, धाम गिरि ढूह गयो बनि।
पटि परिखा पटपर ह्वै रही सोक उपजावनि॥१०९॥
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