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|रचनाकार=आलोक यादव
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इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं
आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं
रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर
नींद भी खोकर यहाँ 'आलोक' पछताता हूँ मैं