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Kavita Kosh से
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये॥
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कहाँ कब क्या पता।
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये॥
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये॥
देश के संदर्भ मे में तुम बोल लेते खूब हो।
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये॥
प्रेम के आख्यान मे में तुम आत्मा से थे चले।
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये॥
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा।
देवताओं से शुरू की वहशियों तक आ गये॥
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