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}}
* [[भूमिका / जन-गण-मन / द्विजेन्द्र 'द्विज']] (ज़हीर क़ुरेशी के द्वारा लिखित)
* [[ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आस्माँ पहाड़ / द्विजेन्द्र 'द्विज']]
* [[अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते / द्विजेन्द्र 'द्विज']]
* [[किसी के पास वो तर्ज़े-बयाँ नहीं देखा / द्विजेन्द्र 'द्विज']]
* [[नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की / द्विजेन्द्र 'द्विज']]
आपकी कश्ती में बैठे , ढूँढते साहिल रहे
उसके इरादे साफ़ थे, उसकी उठान साफ़
सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
सुबह—सुबह यहाँ मुरझाई हर कली बाबा
जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़
हर घड़ी रौंदा दुखों की भीड़ ने संत्रास ने
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
दिल—ओ—दिमाग़ को वो ताज़गी नहीं देते
साथियो ! वक्तव्य को निर्भीक होना चाहिए
दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
इन बस्तियों में धूल—धुआँ फाँकते हुए
उनकी आदत बुलंदियों वाली
मत बातें दरबारी कर
ज़िन्दगी से उजाले गए
कैसी रही बहार की आमद न पूछिए
अँधेरों की सियाही को तुम्हें धोने नहीं देंगे
हाँफ़ता दिल में फ़साना और है
राज महल के नग़्में जो भी गाते हैं
आसमानों में गरजना और है
सबकी बोली है ज़लज़ले वाली
पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
चार दिन इस गाँव में आकर पिघल जाते हैं आप
कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
ये किताबें हिदायतों वाली
जो थे बुलंद सही फ़ैसले दिलाने में
चुप्पियों से ग़ज़ल बनाता है
उघड़ी चितवन
चुप्पियाँ जिस दिन ख़बर हो जाएँगी
एक चुप्पी आजकल सारे शहर पर छाई है
ज़िंदगी का गीत यूँ तो अब नए सुर—ताल पर है
सन्नाटे से बढ़कर बोली , सन्नाटों की रानी रात
सूरज डूबा है आँखों में, आज है फिर सँवलाई शाम
रात —दिन हम से तो है उलझती ग़ज़ल
जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है