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Kavita Kosh से
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ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,<br>
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग , सब समाया अगम्य में।<br>भोगो जगत निष्काम वृति वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृति प्रवृत्ति हो<br>यह धन किसी का भी नही , अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]<br><br>
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:::कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर, <br>
:::सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।<br>
:::निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,<br>:::कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]<br><br>
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अज्ञान तम आवृत आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं, <br>जो भोग विषयासक्त, वे बहु जनम जन्म लेते, निम्न हैं।<br>पुनरपि पुनरापि जनम मरणं मरण के दुखः से , दुखित वे अतिशय रहें,<br>
जग, जन्म, दुखः, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]<br><br>
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:::है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गातिमान गतिमान है, <br>
:::ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।<br>
:::स्थित स्वयं गातिमान गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,<br>:::अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]<br><br>
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चलते भी हैं , प्रभु नहीं भी , प्रभु दूर से भी दूर हैं,<br>
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।<br>
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,<br>
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५] <br><br>
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