भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
<poem>
बड़ा अटेलिहा* अहिरा छोकरादूध बिना नइ खावंय !
घाट पाट बीहर जंगल म
गाय अउ भैंस चरावंय !
भड़वा मन म दूध चुरोवंय
मरकन* दही जमावंय !
भिनसरहा ले चलय मथानी
ठेकवन* लेवना पावंय !
घी के बदला दूध ल अब तो
खोवा बर खौलावत हें !
चरवाही संग गाय भैंस के
रच्छा सुघर करे बर !
किसान कन्हानई कुल के देवता
पूजंय दुख हरे बर !
नवा खवावंय मातर जागंय
पुरखन ल फरियादंय !
गांव ठांव म सबके मंगल
ठाकुर देव ले मागंय !बिन दइहान अब दुल्हादेव* के खोड़हर* नइ पूजावत हें !
एकादशी देवारी धर के
कातिक तइहा आवय !
अंगना डेहरी तुलसी चौरा
म दीयना ओरियावंय !रइया* सुमिरंय अउ गोर्रइया*
बस्ती के ओ मरी मसान
पुरखन के चौंसठ जोगनी ल
सुमिरंय, कहंय करौ कइलान !घर अंगना का छन* म तइहा कसअब नइ खउरावत* हें!
गोबर के सुखधना* किसाननके कोठी म मारंय !
अउ सुख सौंपत खातिर उंकर
सुघ्घंर शबद उचारंय !गर म सुहई* बांध गाय के पइयां परंय जोहारंय !
अन-धन बाढय़ दूध बियारी
मालिक करव गोहारंय !
आज सुहई संग नेह के
लरी घलव मुरझावत हें !
सरधा जबर रहंय तइहा
अउ सिरतो म पुरसारथ !
पन अइसन कुछ बात घलव
जे लागंय निचट अकारथ !
बात बात म लाठी पटकंय
मुड़ अउ माथा फोरंय !
अपने जांघ उघारंय अउ
फदिहत कर दांत निपोरंय !बाहिर ले उज्जर उज्ज र झलके बर
अग भीतर फरियावत हें!
ठौर ठौर म देखव तो अब
राउत नाचा होथे !
कला समुंद म लोक के जानव
कइ बूंद अपन समोथें !
साजू बाजू कलगी पगड़ी
घुंघरू मुंदरी माला !
फरी हाथ संग दू ठन लाठी
ऊपर फरसी भाला !
पुरखन के बाना ल धर के
जुग संग कदम मिलावत हें !
चमक धमक अउ सिरिफ देखावा
दिन दिन बाढ़त जाथे !
गड़वा बाजा अहिरा बाना
दोहा घलव नदाथें !
गय ठाकुर के ठकुरी जानव
अउ अहिरन के अब तो मान !उतियाइल* मन मुखिया होगंयधरसा तक म बोइन धान !
सरोकार सब लोगन मन के
नदिया जनव सरावत* हें !
धरती पिरथी पुरखा पुरबज
मन के भाखा बानी!
झुमरंय नाचंय अउ बजावंय
गावत रहंय जुबानी !
अतमा सगा परतमा बइठे
जुरके सुनय सुनावंय!
ये ओड़हर* म अंतस के सब
इरखा डाह बुझावंय!
अब पहुना के आवब कलकुत*
जावब जबर सुहावत हे!
</poem>