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(राग भैरवीभैरव-ताल कहरवा)
जय शिवशंकर औढरदानी। आदि अनादि अनंत अखंड अभेद अखेद सुबेद बतावैं। जय गिरितनया मातु भवानी॥अलख अगोचर रूप महेस कौ जोगि जती-१॥मुनि ध्यान न पावैं॥सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोकआगम-ईश्वरनिगम-परमेश्वर॥-२॥पुरान सबै इतिहास सदा जिनके गुन गावैं।सब उर-प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टस्न भर्ता अनुमन्ता॥बड़भागी नर-३॥पराशक्तिनारि सोई जो सांब-पति अखिल विश्वपति। परब्रह्मा परधाम परमगति॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-४॥१॥ सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निज स्वरूप महिमामें स्थित रत॥सृजन-५॥अन्ग भूतिसुपालन लय-भूषित श्मशानचर। भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥लीला हित जो विधि-६॥हरि-हर रूप बनावैं।वृषवाहन नन्दीगणनायक। अखिल विश्वके भाग्य-विधायक॥-७॥एकहि आप विचित्र अनेक सुबेष बनाइ कैं लीला रचावैं॥व्याघ्र-चर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥-८॥सुंदर सृष्टि सुपालन करि जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं।कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥बड़भागी नर-९॥तनु कर्पूरनारि सोई जो सांब-गौर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उाम॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-१०॥२॥ भाल त्रिपुण्ड मुण्डमालाधर। गल रुद्राक्ष माल शोभाकर॥-११॥अगुन अनीह अनामय अज अविकार सहज निज रूप धरावैं।विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजनपरम सुरय बसन-पालनआभूषन सजि मुनि-लयकारी॥-१२॥मोहन रूप करावैं॥तुम हो नित्य दयाके सागर। आशुतोष आनन्दललित ललाट बाल-उजागर॥बिधु विलसै रतन-१३॥हार उर पै लहरावैं।अति दयालु भोले भण्डारी। अगबड़भागी नर-जग सबके मंगलकारी॥नारि सोई जो सांब-१४॥सती पार्वतीके प्राणेश्वर। स्कन्द गणेशसदासिव कौं नित ध्यावैं॥-जनक शिव सुखकर॥-१५॥३॥ अंग विभूति रमाय मसान की विषमय भुजगनि कौं लपटावैं।हरि-हर एक रूप गुण-शीला। करत स्वामिनर-सेवककी लीला॥कपाल कर, मुंडमाल, गल, भालु-१६॥चरम सब अंग उढ़ावैं॥रहते दोउ पूजत पुजवावत। पूजा पद्धति सबन्हि सिखावत॥-१७॥घोर दिगंबर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं।मारुति बन हरि सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥बड़भागी नर-१८॥जगनारि सोई जो सांब-हित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकण्ठ वर॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-१९॥४॥ सुनतहि दीन की दीन पुकार दयानिधि आप उबारन धावैं।असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥-२०॥पहुँच तहाँ अबिलंब सुदारुन मृत्यु को मर्म विदारि भगावैं॥‘नमः शिवाय’ मन्त्र पञ्चाक्षर। जपत मिटत सब क?ेश भयंकर॥मुनि मृकंञ्डु-२१॥सुत की गाथा सुचि अजहुँ बिग्यजन गाइ सुनावैं।जो बड़भागी नर-नारि रटत शिवसोई जो सांब-शिव नित। तिनको शिव अति करत परम हित॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-२२॥५॥श्रीकृष्णतप कीन्हों भारी। ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥-२३॥अर्जुन संग लड़े किरात बन। दियो पाशुपत अस्त्र मुदित मन॥-२४॥चाउर चारि जो ड्डूल धतूर के, बेल के पात औ पानि चढ़ावैं।भक्तञ्नके सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥-२५॥गाल बजाय कै बोल जो ‘हरहर महादेव’ धुनि जोर लगावैं॥शङ्खचूड़-जालन्धर मारे। दैत्य असं?य प्राण हर तारे॥तिनहिं महाफल देय सदासिव सहजहि भुक्ति-२६॥मुक्ति सो पावैं।अन्धकको गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥बड़भागी नर-२७॥तेहि संजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपतिनारि सोई जो सांब-गति कीन्हीं॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-२८॥६॥अष्टस्न्मूर्ति पञ्चानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिलिन्ग ज्योतिर्मय॥-२९॥भुवन चतुर्दश व्यापक रूञ्पा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य दारिद्र्य नित्य सुख-३०॥सांति मिलावैं।काशी मरत जन्तु अवलोकी। देत मुक्तिआसुतोष हर पाप-पद करत अशोकी॥ताप सब निरमल बुद्धि-३१॥चिा बकसावैं॥भक्त भगीरथकी रुचि राखी। जटा बसी गङङ्गा सुर साखी॥असरन-३२॥सरन काटि भव-बंधन भव निज भवन भव्य बुलवावैं।रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। ऋञ्षि दधीचि आदिक विज्ञानी॥बड़भागी नर-३३॥शिवरहस्य शिवज्ञाननारि सोई जो सांब-प्रचारक। शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-३४॥7॥इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥-३५॥अति औढरदानि, उदार करुणावरुणालय। हरण दैन्य दारिद्र्यअपार जु नैकु-दुःख-भय॥-३६॥सी सेवा तें ढुरि जावैं।तुहरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र दमन असांति, समन सब ही अधिकारी॥-३७॥संकट, विरद बिचार जनहि अपनावैं॥बालक-वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलय शिवपदको पावहिं॥-३८॥ऐसे कृपालु कृपामय देब के? यों न सरन अबहीं चलि जावैं।भेदशून्य तुम सबके स्वामी। सहज सुहृद सेवकबड़भागी नर-अनुगामी॥-३९॥नारि सोई जो जन शरण तुहारी आवत। सकल दुरित तत्काल नशावत॥सांब-४०॥सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-८॥
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