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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
अनल में प्रीत की जलने दिया कब
दहकती आग को बुझने दिया कब

न जाने कौन कब होगा पराया
समय ने एक सा रहने दिया कब

हताहत कर दिया इक तीर ही से
अराजकता गिरी, उड़ने दिया कब

बहुत दिन से, बहुत कुछ चल रहा था
बहुत दिन आपने, चलने दिया कब

पुजारी था हमेशा अम्न का जो
उसे भी चैन से मरने दिया कब

कली कुचली गयी है फिर चमन में
दरिंदे ने उसे खिलने दिया कब

अता होगा ज़रूरत के मुताबिक
'रक़ीब' उसने कभी कहने दिया कब
</poem>
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