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गोपी विरह / अमरेन्द्र

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जलन घायल अति तन को जलाती है ।
जब भी विलोकंू विलोकूँ मैं कदम्ब यमुना के तीरघिरे सुधि-घटा-घन मानस-गगन में
मुरली बजाते औ चराते धेनु शिशु गण
केलि करते कभी औ क्षीर पीते क्षण में
सुधि आते उनकी मगन मेरा मन होता
रास जो रचाये घनश्याम मधुवन में
कालेय पे क्रीड़ा वो कालिन्दी मंे में कन्हैया का
चीर को चुराते चितचोर आते मन में ।
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