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पेड़ जानता है / डी. एम. मिश्र

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पेड़ जानता है
वह दुकान बन चुका है
और बाज़ार के सामने खड़ा है
पूरा का पूरा
स्वाहा होने तक
पेड़ जानता है
वह सिर्फ देता है
लेता कुछ नहीं
 
पेड़ जानता है
उसके नीचे मुसाफ़िरों का डेरा है
और ऊपर परिन्दों का रैन बसेरा है
 
पेड़ जानता है
एक मुट्ठी छाँव के लिए
इन्सान कभी-कभार पेड़ को पूजता है
पर, है बड़ा खुदगर्ज और एहसान फ़रामोश
 
इन्सान एक भी मौका नहीं चूकता
अपने फ़ायदें का
आरा लिए खड़ा रहता है
</poem>
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