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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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हरदी तेल का
उबटन करके
पीरी पहना रही खेत में
हवा लगे
उसकी भौजाई
राई, पियर-पियर पियराई

चढ़कर
देह जवानी महके
फीके लगते
बाग बगीचे
अगहन में
खुलने लग जाते
मन के सारे बंद गलीचे

नज़र बचाकर
पी जाने को
घर को ताके दूध, बिलाई
राई, पियर-पियर पियराई

धरने आई
आसों राई
जैसे बिटिया के
सिर छींदी
निकले
सगुन महाजन लाओ
आये कर
ले खुली खरीदी

नहीं! मानती
है नातिन के
पीले हाथ करेगी दाई
राई, पिपर-पियर पियराई

</poem>०००