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|रचनाकार=कुमार मुकुल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
वाम हैं
दिशा हैं वे
वे हड्डियों को डंडे की तरह
और अपनी देह को झंडे की तरह
लहरा सकते हैं
उनकी आशा हमेशा जनता से रहती है
अक्ल के टटपुंजिओं से वे
कभी सम्मान की आशा नहीं करते
बेइज्जत कर वे
चाणक्य की तरह भले निकाले जाएं
पर तैश मे भी वे चुटिया बांधेंगे नहीं
बल्कि काटेंगे
वे इंतजार करेंगे
कि जनता जब कष्ट से पागल हो कर
उनके साथ आएगी
राजपद को वे जनहित मे
सामूहिक तौर पर अस्वीकृत करेंगे
और उस अस्वीकार की
डुगडुगी भी नही बजायेंगे
हजारसाला गुलामी के बाद
वे बचे हुए कंठ हैं
जहां सरस्वती की तरहस्मृति बसती है
इसपर चिंतित मत होओ
कि वे केंद्र मे नहीं रहे
वे हाशिए पर है
क्यों कि जनता हाशिए पर है
वे भीड़ को जनता बनाने की
कोशिश मे लगे हैं
ध्रुवों की बर्फ में तुम कहाँ उन्हें ढूंढ रहे
कब के वहां से प्रयाण कर चुके वे
लंदन तक अपनी भरी मालगाड़ी लेकर
पहुचे ड्रैगन मे भी उन्हें मत ढूंढो
कि वे अब तुम्हारे मानस के केंद्र में पड़ी
मनुष्यता की राख मे हैं
फीनिक्स की तरह पड़े हुए।
</poem>
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वाम हैं
दिशा हैं वे
वे हड्डियों को डंडे की तरह
और अपनी देह को झंडे की तरह
लहरा सकते हैं
उनकी आशा हमेशा जनता से रहती है
अक्ल के टटपुंजिओं से वे
कभी सम्मान की आशा नहीं करते
बेइज्जत कर वे
चाणक्य की तरह भले निकाले जाएं
पर तैश मे भी वे चुटिया बांधेंगे नहीं
बल्कि काटेंगे
वे इंतजार करेंगे
कि जनता जब कष्ट से पागल हो कर
उनके साथ आएगी
राजपद को वे जनहित मे
सामूहिक तौर पर अस्वीकृत करेंगे
और उस अस्वीकार की
डुगडुगी भी नही बजायेंगे
हजारसाला गुलामी के बाद
वे बचे हुए कंठ हैं
जहां सरस्वती की तरहस्मृति बसती है
इसपर चिंतित मत होओ
कि वे केंद्र मे नहीं रहे
वे हाशिए पर है
क्यों कि जनता हाशिए पर है
वे भीड़ को जनता बनाने की
कोशिश मे लगे हैं
ध्रुवों की बर्फ में तुम कहाँ उन्हें ढूंढ रहे
कब के वहां से प्रयाण कर चुके वे
लंदन तक अपनी भरी मालगाड़ी लेकर
पहुचे ड्रैगन मे भी उन्हें मत ढूंढो
कि वे अब तुम्हारे मानस के केंद्र में पड़ी
मनुष्यता की राख मे हैं
फीनिक्स की तरह पड़े हुए।
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