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बम्बई-2 / विजय कुमार
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13:30, 19 मई 2008
यह कैसा आकाश था
इतनी रात और अंधेरे में
अपने साथ
कोई स्मृति भी नहीं
इस तरह हम
छूटते गए अकेले
नहीं यह बुख़ार नहीं था
हम स्तब्ध पड़े थे
ख़ामोश
वह हँसी
हमारी नहीं थी
छाती से निकलती हुई
खोखली हो...हो...
अनिल जनविजय
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